आरिफ मोहम्मद खान का इस्लामोफोबिया

आरिफ मोहम्मद खान का इस्लामोफोबिया
मुफ़्ती डा० यासिर नदीम अल वाजिदी

कुछ सीधे सादे लोगों का मानना है कि आरिफ खान ईमानदारी के साथ समाज की सोच में सुधार करना चाहते हैं। अतः इन सीधे सादे लोगों से प्रेमपूर्वक एक प्रश्न है कि यदि आप अपने भाई में वास्तव में कुछ कमियां देखते हैं और उसका उद्वार करना चाहते हैं, तो क्या आप प्यार से उसके साथ व्यव्यहार करेंगे और उसके साथ संवाद स्थापित करेंगे या आप उसके शत्रु के पास जा कर उसकी कमी का बखान करेंगे और उसकी घरेलू परिस्थितियों का वर्णन करके उसका मज़ाक उड़ाएंगे जब कि इस बात की बहुत अधिक संभावना भी हो सकती है कि आप अपने भाई के बारे में जो भी कुछ भी नकारात्मक रूप से सोच रहे हैं वह आपकी गलतफहमी या आपके अल्पज्ञान का परिणाम भी हो सकता है?

आरिफ खान के अनुसार, कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने अपने कुछ प्रश्न दारुल उलूम देवबंद को भेजे थे और अपनी कुछ शंकाओं से दारुल उलूम को अवगत कराया था, पर दारुल उलूम ने आज तक उन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया और न उनकी शंकाओं को दूर किया। उन्होंने हिंदी समाचारपत्र दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर एक लेख में इन आरोपों और शंकाओं का उल्लेख किया है और याद दिलाया है कि वह अभी भी देवबंद से उनके प्रश्नों के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन हम आरिफ मोहम्मद खान को याद दिलाना चाहते हैं कि एक साल पहले देवबंद के एक छात्र और एक प्रतिनिधि के रूप में हमने आपको हमारे ऑनलाइन कार्यक्रम सर्जिकल स्ट्राइक में आमंत्रित किया था और उन सभी आपत्तियों का उत्तर भी दिया था जो आप उन लोगों के बीच बैठ कर बयान करते थे जिनका इस विषय से कोई सम्बन्ध ही नहीं था और न उसका कोई ज्ञान,उन लोगों से आपको वाहवाही भी खूब मिलती थी। हमारे इस कार्यक्रम को देखने वाले हजारों की संख्या में हैं, वे अभी तक नहीं भूले हैं कि आप हमारे जवाबों को सुनने के लिए तैयार ही नहीं होते थे और क्रोधित हो कर अपना आप भी खो बैठते थे। यदि आपको यह याद नहीं है, तो आप उस वीडियो को फिर से YouTube पर देख सकते हैं। आपकी आपत्तियां प्रशासनिक और संगठनात्मक प्रकृति की नहीं हैं, अतः दारुल उलूम देवबंद ही उनका उत्तर देने के लिए अकेला बाध्य नहीं है, अपितु आपकी आपत्तियां विचारधारा से जुडी हुई हैं और देवबंद विचारधारा का कोई भी अनुयायी आपकी इन आपत्तियों का उत्तर देने के लिए पूर्णतयः स्वतंत्र है, ठीक इसी प्रकार यदि किसी धर्म और विचारधारा के विपरीत उठाई जाने वाली आपत्तियों और शंकाओं के उत्तर और समाधान के लिए उस विचारधारा या धर्म का हर अनुयायी स्वतंत्र होता है।

आरिफ मुहम्मद खान ने अपने लेख में जिस प्रकार मिथ्यावर्णन और सन्दर्भ से हट कर कुछ तथ्यों को नकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया है इसी की आशा उन से की जा सकती है।

अपने लेख में है उन्हें अशरफुल हिदाया नामी पुस्तक को जो कि हिदाया (इस्लाम के फ़िक़ह हनफ़ी के कानून का संकलन और उनका विस्तृत अध्यन) की आसान उर्दू में कुंजी है, उन्होंने उसे अपनी आपत्तियों का निशाना बनाया है। जब कि यह पुस्तक तीस वर्ष पूर्व ही लिखी गई है और उसके लेखक मौलाना जमील सकरोडवी का इसी वर्ष निधन हुआ है। इस पुस्तक में हिदाया के अबवाब अल-सियर (अर्थात युद्ध निति) को आसान भाषा में वर्णित किया गया है जिसमे युद्ध की निति और इस्लाम तथा गैर मुस्लिम राज्य के बीच युद्ध से सम्बंधित नियमों को वर्णित किया गया है।

शरीअत की समझ रखने वाला एक आम व्यक्ति भी जानता है कि अब्वाब-उस-सियर (युद्ध निति वाला अध्याय) में व्यक्तिगत अनुदेश बयान नहीं किए गए हैं बल्कि इस्लामिक राष्ट्र की सेनाओं के युद्ध के समय के अधिकारों और नियमों को वर्णित किया गया है। हिदाया में सैन्य अधिकारों के अध्यायों से पहले किताब-उल-हुदूद (अर्थात इस्लाम के “क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम”) को वर्णित किया गया है और यह बात स्पष्ट है कि ऐसा सिस्टम एक सरकार ही चला सकती है, कोई व्यक्ति या संस्था तो चला नहीं सकते। ठीक यही स्थिति किताब-उस-सियर (युद्ध निति) में वर्णित किये गए अनुदेशों की भी है, किताब-उस-सियर को किताब-उल-हुदूद (क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम) के बाद क्रमबद्ध रूप से वर्णित करने का उद्देश्य भी यही है।

आरिफ़ मुहम्मद खान में अपने लेख में लिखा है कि हिदाया के अनुसार मुर्तद (इस्लाम धर्म त्याग कर अन्य धर्म को स्वीकारने वाले या धर्मनिंदा करने वाले) को मृत्यु दंड दिया जाएगा और देवबन्द की विचारधारा के अनुसार क़ादियानी, आग़ाख़ानी और राफ्ज़ियों को इस्लाम धर्म से अलग ही माना जाता है अतः इसका परिणाम भी यह ही होगा कि पाकिस्तान की तरह भारत की मस्जिदों में भी क़ादियानियों और शियों को बम मार कर मौत के घाट उतार दिया जाए।

सबसे पहली बात तो यही है कि मुर्तद की सज़ा “क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम” के तहत लिखी हुई है, और लीगल सिस्टम को लागु करना किसी व्यक्ति या किसी संस्था का कार्य नहीं और न उनके कार्यक्षेत्र में आता है बल्कि यह सरकार का कार्यक्षेत्र है, जो एक विधिवत न्यायलय का गठन करती है और विधिवत रूप से न्यायप्रक्रिया को पूरा कर के सरकार के द्वारा नियुक्त न्यायधीश यह निर्णय करते हैं कि अभियुक्त धर्मनिंदा में संलिप्त है या नहीं? और संलिप्तता सिद्ध होने के बाद ही अभियुक्त को दण्डित किया जाता है। आप धर्मनिंदा से सम्बंधित अपराध के इस्लामी संविधान में निहित दंड के प्रावधान से मतभेद कर सकते है और आपसे पहले भी बहुत से विद्वानों ने इस प्रावधान से मतभेद किया भी है, लेकिन मस्जिदों में क़ादियानियों और शियों को बम मार कर मौत के घाट उतारना जैसा परिणाम निकालना इस बात का प्रमाण है कि सन्दर्भ से हट कर बात करने और मिथ्यावर्णन करने में आरिफ़ मुहम्मद खान तारिक़ फ़तह और पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ से किसी तरह भी पीछे नहीं हैं। अगर वास्तविकता वही होती जो आरिफ़ खान ने वर्णित की है तो भारत में पता नहीं कितनी ही इबादतगाहों पर हमले हो चुके होते। यह भारत ही है जहाँ के शांतिप्रिय मुसलमान तस्लीमा नसरीन और तारिक़ फ़तह को बर्दाश्त करते हैं और जहाँ आरिफ़ मुहम्मद खान भी सुकून के साथ अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।

आरिफ़ खान देवबन्द पर आरोप मढ़ते हैं कि उनके यहाँ अशरफ़ुल हेदाया शरीअत है। हम समझते थे कि शायद आरिफ़ मुहम्मद खान किसी सीमा तक एक “विचारक” होंगे, लेकिन उनके इस वक्तवय से तो उनसे सम्बंधित हमारा सुविचार ग़लत ही निकला। अशरफ़ुल हेदाया तीस -पैंतीस साल पहले लिखी गई किताब है और उसके लेखक की मृत्यु भी इसी वर्ष हुई है, इस के विपरीत दारुल उलूम देवबन्द की आयु डेढ़ सदी से अधिक है। देवबन्द की विचारधारा से खान साहब को असहमत होने का पूरा अधिकार है परन्तु स्वयं अपने साथ तो इतना भोंड़ा मज़ाक़ न करें।

आरिफ़ खान का आरोप है कि लोग आतंकवादी कैसे बन जाते हैं यह मुझे हेदाया पढ़ कर आभास हुआ। उनकी सूचना के लिए स्पष्ट करना चाहता हूँ कि दाइश (आईएसआईएस) और अल-शबाब दोनों ही विश्व स्तर पर आतंकवादी संगठन कहे जाते हैं और इन दोनों का फ़िकह हनफ़ी की हेदाया से कोई सम्बंध नहीं है। और पूरी दुनिया के मुसलमान और सरकारें मिल कर इन आतंकवादी संगठओं के विरुद्ध लड़ाई लड़ रही है और इन आतंकी संगठनों ने इस्लाम और मुस्लमान को ही सब से अधिक हानि पहुंचाई है।

हम जानते हैं कि हम आरिफ़ मुहम्मद खान की राय को बदल नहीं पाएंगे, क्योंकि उनकी राय किसी सिद्धान्त पर आधारित नहीं बल्कि एक विशेष एजेंडे पर आधारित है, इसलिए हम इस का प्रयास न करते हुए उन्हें कुछ सुझाव देते हैं। वह देवबन्द से यह सवाल करें कि हेदाया पढ़ने के बावजूद अभी तक मदरसों के स्नातक आतंकवाद में संलिप्त क्यों नहीं हैं? वो यह पूछें कि मदरसों के उलमा अपनी नेक नामी के आधार पर भारतीय संसद में सांसद बन कर कैसे पहुँच रहे हैं? वो यह भी पूछें कि इस पुस्तक को पढ़ने के बावजूद मदरसों के छात्र और उलमा देश का सबसे बड़ा चैरिटी सिस्टम कैसे चला रहे हैं? कैसे केरल में बिना धर्म जाति भेद यह उलमा सैलाब से पीड़ित लोगों को मकान बना कर दे रहे हैं? वो आगे बढ़ कर नागपुर से भी कुछ प्रश्न करें, वह उनसे पूछें कि कैसे हेदाया पढ़े बिना आतंकियों ने मालेगाँव और समझौता एक्सप्रेस में धमाके किए थे? वो बजरंग दल से भी प्रश्न पूछें कि उसके सदस्यों ने मोब लिंचिंग से पहले हेदाया के सबक़ कहाँ पढ़ते हैं? प्रश्न पूछने की उनकी इतनी ही इच्छा है तो इस इच्छा को वह अवश्य पूरा करें, लेकिन जीवन के इस पड़ाव में न्याय के (कुछ ही सही) पर इन तक़ाज़ों को पूरा करें। म राज्य के बीच युद्ध से सम्बंधित नियमों को वर्णित किया गया है।

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